प्रदीप पांडेय ने सोशल मीडिया पर उठाया अहम सवाल…यदि कर्मचारियों को पेंशन नहीं तो नेताओं को क्यों ? OPS की मांग पर जबरदस्त लेख जरूर पढ़ें

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  छत्तीसगढ़ पंचायत नगरीय निकाय शिक्षक संघ बिलासपुर के मीडिया प्रभारी प्रदीप पांडेय ने सोशल मीडिया में अहम सवाल उठाया है कि यदि 2003 के बाद नियुक्त कर्मचारियों को पेंशन का लाभ नहीं तो 2003 के बाद निर्वाचित नेताओं के लिए पेंशन का प्रावधान क्यों…?

ज्ञात हो कि 2003 के बाद नियुक्त समस्त कर्मचारियों को पेंशन का प्रावधान बंद कर नवीन पेंसन नीति लागू कर दी गई है किंतु नेताओं के लिए पेंशन यथावत रखा गया है बल्कि इसमें और सुधार करते हुए यह संशोधन कर दिया गया कि कोई भी नेता 1 दिन के लिए भी निर्वाचित होता है तो उसके लिए ताउम्र पेंशन की व्यवस्था की गई है।
पुरानी पेंशन नीति बंद करने की पीछे तात्कालिक सरकार के द्वारा जो तर्क दिया गया था उसमें कहा गया कि पेंशन से सरकारी खजाने पर भार बढ़ रहा है इसलिए इसे बंद किया। जा रहा है।
अब सवाल यह उठता है कि यदि कर्मचारियों के पेंशन से सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता है तो क्या नेताओं को दिए जाने वाले पेंशन से सरकारी खजाने पर बोझ नहीं पड़ेगा। आखिर कर्मचारियों का ही पेंशन क्यों बंद किया गया नेताओं के लिए पेंशन बंद क्यों नहीं किया गया।
यह सवाल उठाते हुए प्रदीप पांडेय ने कहा है कि

कर्मचारियों को पेंशन नहीं तो फिर नेता जी को पेंशन क्यों…?

आज पूरे देश में 2003 के बाद नियुक्त होने वाले कर्मचारियों में नई पेंशन योजना (एनपीएस) को लेकर दिन ब दिन रोष बढ़ता जा रहा है। विरोध होना भी लाजिमी है बडी़ विचित्र बात है कि कर्मचारी लोकतंत्र में जिन सरकारों को मां का दर्जा देते हैं वही मां अपने बच्चों को बुढ़ापे में भूखे मरने के लिए छोड़ रही है। यह सच है कि सरकारी सेवा क्षेत्र में नौकरियों के अवसर समय के साथ – 2 कम हुए हैं फिर भी आज जिन लोगों को सरकारी क्षेत्र में नौकरी मिल रही है संतोष उन्हें भी नहीं है। इसकी मुख्य वजह है पहले तो नौकरी का अनुबंध (संविदा) पर मिलना दूसरा सबसे बड़ी चिंता जो इस समय इन कर्मियों के लिए बनी हुई है वो है सेवाकाल के बाद बिना पेंशन के बुढापा।के

आखिर पेंशन की चिंता क्यों जायज है….?

मैं कुछेक पहलुओं पर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि पुरानी पेंशन क्यों जरूरी है। भारतीय संविधान ने सबको समानता का अधिकार दिया लेकिन व्यवस्था ने समय के साथ अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इसको समानता की जगह असमानता में बदल दिया। बात हो रही है पुरानी पेंशन की तो 2003 के बाद सरकारी क्षेत्र में नियुक्त होने वाले कर्मियों के लिए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने पुरानी पेंशन बंद कर दी उसकी जगह नई पेंशन स्कीम शुरू कर दी गई। शुरू में इसका जितना विरोध होना चाहिए था वह नहीं हो पाया किसी भी चीज़ या योजना के परिणाम उसके लागू होने के 10-15 वर्षों बाद सामने आते हैं। यहां भी यही हुआ आज 10-12 वर्षों बाद नई पेंशन स्कीम के परिणाम या दुष्परिणाम कहें सामने आ रहे हैं। अब जो कर्मी 2003 के बाद नियुक्त हुआ है उसे 10-15 वर्ष के सेवाकाल बाद मात्र 1हजार के लगभग पेंशन मिलेगी। इस बात से कोई भी मुंह नहीं मोड सकता कि मात्र 1 हजार रुपए की पेंशन पर एक सेवानिवृत्त व्यक्ति कैसे अपना व अपने परिवार का पेट पाल सकता है।
यह कैसी समानता का अधिकार है कि एक ही पद पर नियुक्त कर्मी जब सेवानिवृत्त होते हैं तो एक कर्मी को 25 हजार की पेंशन और दूसरे को उतने ही सेवाकाल बाद 1 हजार की पेंशन। हमारी सरकारें इतना भी नहीं समझ पाई कि कर्मियों के लिए तो न्यू पेंशन स्कीम (एनपीएस) लागू कर दी लेकिन खुद के लिए वही पुरानी पेंशन मतलब माननीय चाहे एक वर्ष तक निर्वाचित रहे उन्हें पुरानी पेंशन और कर्मचारी चाहे 20 वर्ष का कार्याकाल पूरा कर ले उसे 1 हजार की नाममात्र न्यू पेंशन। इस देश का दुर्भाग्य कहें या नेताओं का
सौभाग्य एक बार जनप्रतिनिधि चुनें जाने के बाद वे ता-उम्र पेंशन के हकदार बन जाते हैं भले ही वह अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा भी ना कर पाएं।

मैं नई व पुरानी पेंशन के तकनीकी पहलुओं पर नहीं जाना चाहता मैं तो उन सामाजिक पहलुओं पर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जिसकी तस्वीर बहुत दर्दनाक है। सबसे मुख्य बात पुराने कर्मियों का जीपीएफ कटता है जो सरकारी खजाने में जाता है और ब्याज भी वर्तमान दर का देय होता है वहीं नई पेंशन स्कीम में कर्मचारी का सीपीएफ कटता है जिसमें कर्मचारी के मूल वेतन की 10% राशि कटती है जबकि इतनी ही राशि सरकार या नियोक्ता द्वारा डाली जाती है। यह सब राशि शेयर बाजार में लगती है इसे सरकारी खजाने में नहीं रखा जाता यहां भी सरकार ने एक कर्मी की जमा पूंजी को बाजार के हवाले कर दिया गारंटी भी कोई नहीं। एक कर्मचारी पहले जीपीएफ अपनी मर्जी से जमा करवा सकता था लेकिन अब नई पेंशन स्कीम के अधीन कर्मी चाह कर भी बचत नहीं कर सकता। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता कि जहाँ कर्मचारी जितनी राशि जमा कर रहे हैं उनकी वह राशि शेयर बाजार में जाकर कम हो रही है। अंत में भी तरह-2 की औपचारिकताएं पूरी करने पर अपने जमा की पूरी पूंजी नहीं मिल पाती। सामाजिक सुरक्षा सभी के लिए जरूरी है। आज चाहे गांव हो या शहर वर्तमान में एकल परिवारों का चलन है। संयुक्त परिवार अब नहीं रहे। एक कर्मी जिसने 15-20 साल सरकारी नौकरी करने के बाद अपने बच्चों व परिवार पर अपनी सारी जमा पूंजी खर्च की लेकिन जब बुढापा आया तो वही बच्चे मां बाप को छोड़कर चले जाते हैं। इससे दुखदायी और क्या हो सकता है कि अपनी जमा पूंजी को खत्म कर एक इंसान को सरकार ने भी बेसहारा छोड़ दिया वहीं उसके अपने भी छोड गए।

व्यवस्था से भी कुछेक प्रश्नों का समाधान आपेक्षित है कि यदि पुरानी पेंशन से देश का वित्तीय घाटा बढ़ा तो क्या माननीयों की पेंशन से यह घाटा नहीं बढ़ा होगा?
किसी लोकतांत्रिक देश में कल्याणकारी राज्य ही वहां की परिभाषा है। वर्तमान में पूरे देश में पुरानी पेंशन की मांग उठ रही है क्योंकि न्यू पेंशन स्कीम के दुष्परिणाम अब जाकर सामने आ रहे हैं। वैसे भी यह तो कदापि न्यायोचित नहीं की केवल समय के आधार पर आप अपने कर्मचारियों को अलग-2 पेंशन दें वह भी तब, जब वह एक ही पद पर एक-समान सेवाकाल पूरा करके सेवानिवृत्त हुए हो। बस केवल इस अंतर के आधार पर एक को पेंशन से वंचित रखा जा रहा है कि वह 2003 के लिए बाद नियुक्त हुआ है। सबसे बड़ी बात तो यह हे कि जो चीज कर्मियों पर लागू हो वह उन जनप्रतिनिधियों पर भी होनी चाहिए जो 2003 के बाद चुनें गए हों । क्योंकि अपने फायदे के लिए नियमों में ढील देना संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन हैं। जबकि यह अधिकार सबको व सब पर एक समान लागू होते हैं। आज जरूरत है सरकारी क्षेत्र को ऊपर उठाने की और इसको उपर मात्र वहां के कर्मी ही उठा सकते हैं। लेकिन वह भी तभी ऊपर उठा पाएंगे जब बिना डर भय के कार्य कर पाएंगे। कोई भी इंसान वर्तमान स्थिति से खुश नहीं होता वह खुश होता है अपने भविष्य को देखकर, भविष्य की तस्वीर ही उसकी वर्तमान क्षमता को बढ़ाती है।

उम्मीद है देश एवं प्रदेश की सरकार अपने कर्मचारियों के लिए उसी पेंशन को बहाल करेंगी जिस पेंशन की हमारे माननीय व 2003 से पहले के कर्मी उपभोग कर रहे हैं।

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